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PROUTIST SARVASAMAJ SAMITI

प्राउटिस्ट सर्वसमाज समिति (PSS)

प्राउटिस्ट सर्वसमाज समिति क्या है?

प्राउटिस्ट सर्वसमाज समिति को 1979 में एक सामाजिक-आर्थिक-सांस्कृतिक संगठन के रूप में स्थापित किया गया था ताकि प्राउट के कार्यान्वयन के लिए लड़ाई लड़ी जा सके। प्राउट, जिसका पूरा नाम प्रोग्रेसिव यूटिलाइजेशन थ्योरी (Progressive Utilisation Theory) है, श्री श्री आनंदमूर्ति जी (आनंद सूत्र, अध्याय 5) द्वारा प्रतिपादित एक व्यापक सामाजिक-आर्थिक सिद्धांत है और इसे प्रत्येक व्यक्ति के लिए जीवन की प्रगतिशील समाजवाद आवश्यकता के रूप में वर्णित किया जा सकता है। इस उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए विकेंद्रीकृत सामाजिक-आर्थिक योजना और विकास होना आवश्यक है। प्राउट की विकेन्द्रीकृत आर्थिक योजना के लिए बनाई गई सामाजिक-आर्थिक इकाइयों को समाज कहा जाता है, जो वर्तमान में भारत में 44 और विश्व में कुल 252 हैं।

श्री श्री आनंदमूर्ति

सैद्धांतिकआधार

नव्धमानवतावाद (NEO-HUMANISM):
मानवतावाद का क्षेत्र मानवहित तक सीमित रहता है। पशु-पक्षियों पेड़-पौधों तथा जड़ जगत के हित का इसमें विचार नहीं किया गया है।मानवीय भावप्रवणता को सीमा को विस्तारित कर, जड़ तथा चेतन सभी सत्ताओं को नव्यमानवतावाद को सीमा में लाया गया है क्योंकि सपूर्ण सृष्टजगत परम चैतन्य की ही अभिव्यक्ति है।

नव्य नीतिवाद (NEO-ETHIC):
सामाजिक आर्थिक और राजनैतिक संबंधों का आधार नव्यनीतिवाद (Neo Ethic) होना चाहिए। इसका अर्थ है मानव समाज के हित के साथ जीव जन्तुओ तथा पर्यावरण के हित का भी विचार होना चाहिए क्योंकि पर्यावरणीय सन्तुलन को अक्षुण रखने में सभी का सत्तात्मक (Existential Value) मुल्य है। उसी प्रकार मौल मानवीय मूल्यों (cardinal human values) को सामाजिक तथा मानवीय मूल्यों के ऊपर रखना चाहिए।

भूमा उत्तराधिकार (COSMIC INHERITANCE):
विश्व बह्माण्ड परमचैतन्य को हो अभिव्यक्ति है। इसका स्वष्टा मनुष्य नहीं है इसलिए मानव समाज को सृष्ट वस्तुओं के यथोचित उपयोग का ही केवल अधिकार है उसके स्वामित्व का नहीं।

अनेकता में एकता (UNITY IN DIVERSITY):
मानव समाज एक और अविभाज्य है। मनुष्य-मनुष्य में मौलिक भेद नहीं हैं। संस्कृति, नस्ल, लिंग, वर्ण, पद और अमीर-गरीब के भेद बाह्य हैं। उसी प्रकार मानव संस्कृति भी एक है।काल-पात्रऔर स्थान में परिवर्तन के कारण उसकी अभिव्यक्ति में अन्तर दृष्टिगोचर होता है।


समकक्ष सहयोग (CO-ORDINATED COOPERATION):


परस्पर सामाजिक संबंधों का आधार समकक्ष सहयोग होना चाहिए न कि अधीनस्थ सहयोग। समकक्ष सहयोग का अर्थहै: परस्पर सम्मान करते हुए बराबरी की हैसियत से एक दूसरे के हित की भावना से कार्य करना।

प्रंउत (PROUT):


प्रगति-शील उपयोगी तत्व (Progressive Utilisation Theory) का संक्षिप्त नाम "प्रउत" (PROUT) है।यह एक सामाजिक आर्थिक सिद्धान्त है। इसके पांच मूलभूत तत्व हैं।-
1.किसी भी व्यक्ति को समाज की आज्ञा या सहमति के बिना किसी प्रकार को भौतिक संपत्ति संग्रह करने की छूट नहीं दी जानी चाहिए।
2.विश्व की सभी भौतिक, आधिभौतिक और आध्यात्मिक सम्पदाओं का अधिकतम उपयोग एवं विवेक पूर्ण वितरण होना चाहिए।
3.मानव समाज के वैयक्तिक एवं सामूहिक शारीरिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक सम्पतियों का अधिकतम उपयोग होना चाहिए।
4.इन सभी भौतिक, आधिभौतिक, शारीरिक, मानसिक तथा आध्यात्मिक उपयोगों के बीच सुसामंजस्य होना चाहिए।
5.देश, काल और पात्र में परिवर्तन के अनुसार उपयोग का ढंग बदलना चाहिए और इसे सदा प्रगतिशील स्वभाव का होना चाहिए।

सामाजिक आर्थिक सिद्धान्त

आर्थिक प्रजातंत्र

आर्थिक प्रजातंत्र का मतलब है। संपूर्ण आर्थिक नीतियों को तय करने तथा उसके कियान्वयन का अधिकार स्थानीय लोगों के हाथ में होना चाहिए। यह तभी संभव है जब अर्थशक्ति पूरी तरह विकेन्द्रित हो। आर्थिक प्रजातंत्र के लिए निम्नलिखित तत्व आवश्यक हैं।

1.आर्थिक व्यवस्था ऐसी होनी चाहिए जिससे प्रत्येक व्यक्ति की न्यूनतम आवश्यकताओं (भोजन, वस्त्र, आवास, शिक्षा और चिकित्सा) की पूर्ति हो सके। उसकी पूर्ति करने वाले संसाधनों तथा संबंधित उद्योगों का संचालन स्थानीय लोगों द्वारा किया जाना चाहिए।स्थानीय लोगों से मतलब है वे लोग जिन्होंने अपने सामाजिक, आर्थिक हित को उस इकाई के सामाजिक-आर्थिक हित के साथ एक कर दिया है।
2.कच्चे माल का उपयोग उस क्षेत्र के सर्वात्मक विकास के लिए किया जाना चाहिए तथा उसे क्षेत्र से बाहर जाने की छूट नहीं दी जानी चाहिए। उपलब्ध कच्चे माल पर आधारित उद्योग भी इन्हीं आर्थिक इकाईयों में ही लगाये जाने चाहिए और उसका संचालन सहकारी संस्थाओं द्वारा होना चाहिए।

3.उद्यमों में केवल स्थानीय लोगों को ही रोजगार दिया जाना चाहिए। बाहर के लोगों को उस क्षेत्र की आर्थिक गतिविधियों में हस्तक्षेप करने का अधिकार नहीं होना चाहिए।

4.उत्पादन का उद्देश्य उपयोगिता होना चाहिए न कि मुनाफा कमाना। सम्बंधित क्षेत्र के उत्पादित माल की बिक्री के लिए स्थानीय बाजार में ले जाने पर कोई प्रतिबन्ध नहीं होना चाहिए।

5.उत्पादन और वितरण का संचालन सहकारी संस्थाओं द्वारा होना चाहिए।

6.सभी प्रकार के कृषि उत्पाद तथा कृषि आधारित उद्योगों की स्थापना स्थानीय लोगों की आवश्यकतानुसार होनी चाहिए। इन उद्योगों का संचालन, नियमन, तथा नीति निर्धारण भी सहकारी संस्थाओं द्वारा होनाचाहिए।

7.स्थानीय बाजारों में उस क्षेत्र की उत्पादित वस्तुएं ही बिकनी चाहिए।

औद्योगिक नीति :

आय के वितरण की समस्या के समाधान के पश्चात् उस आय की उत्पत्ति के तरीकों पर विचार करना चाहिए। प्रउत की औद्योगिक नीति में विवेकपूर्ण आर्थिक समानता को अर्थनीति का अंग बनाया गया है। इसकी तीन श्रेणियां होनी चाहिए:-


1.मूलउद्योग (Key Industries)

मूल उद्योग में वे उद्योग सम्मिलित किये जाने चाहिए जो सहकारी उद्योगों के लिए कच्चे माल की आपूर्ति करते हों; जैसे ऊर्जा, इस्पात, प्रतिरक्षा सामग्री उर्वरक, तेल, गैस, खनिज, सीमेन्ट, कोयला, मशीन औजार, भारी इंजिनियरींग, पेट्रोकेमिकल आदि। इन उद्योगों का संचालन स्थानीय सरकारों द्वारा किया जाना चाहिए ।इन सरकारी उद्योगों को "न लाभ न हानि" के सिद्धान्त पर संचालित किया जाना चाहिए।

2.सहाकरी उद्योग (Cooperative Industries)

इस श्रेणी में कृषि समेत सभी बड़े उद्योग तथा सेवायें आती हैं। इसका संचालन सहकारी समितियों द्वारा किया जाना चाहिए।

3.निजी-उद्यम (Private Enterprises)

इस श्रेणी में उन उपभोक्ता वस्तुओं, कृषि उत्पाद तथा सेवाओं को रखा जाना चाहिए जिनका संचालन सहकारी समितियों द्वारा संभव नहीं हो। इनका प्रबंधन व्यक्तिगत स्तर पर या छोटी साझेदारी वाली सहकारी संस्थाओं द्वारा किया जाना चाहिए जैसे जलपानंगृह, छोटी-छोटी परचून या जनरल, मरचेनटाइज की दुकानें, दरजी, नाई, , आटो रिपेयर्स, वकील डाक्टर आदि।

कृषि-नीति (Agriculture Policy):

कृषि को उद्योग का दर्जा दिया जाना चाहिए। किसानों को निशुल्क अथवा नाम मात्र मूल्य पर पानी तथा अच्छे बीज की आपूर्ति करने के लिए जिम्मेदारी लेनी चाहिए। उर्वरक के बदले हरी खाद का प्रयोग करने के लिए किसानों को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। अलाभकारी जोतों को सहकारिता के अन्तर्गत लाया जाना चाहिए। कृषि आधारित उद्योगों को स्थापना के द्वारा ही कृषि को उद्योग का दर्जा दिया जा सकता है।

स्वावलम्बी सामाजिक आर्थिक इकाई(Self-sufficient Socio Economic Unit)

आर्थिक प्रजातंत्र के लिए विकेन्द्रित अर्थव्यवस्था अपरिहार्य है। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए समान आर्थिक क्षमता, समान आर्थिक समस्या, समान भौगोलिक परिस्थिति तथा समान भावनात्मक विरासत के आधार पर स्वावलम्बी आर्थिक इकाईयों का निर्माण आवश्यक है। इसी दृष्टि से भारत में 44 आर्थिक इकाईयों का निर्माण किया गया है। इन इकाईयों के निर्माण करने में तरोका क्षेत्रगत होगा परन्तु भावना सार्वभौमिक होगी। (Regional approach and universal spirit) दूसरे शब्दों में इसका आधार होगा, सार्वभौम सिद्धान्त परन्तु काल पात्र तथा स्थान में परिवर्तन के अनुसार सामंजस्य रखने का प्रावधान रहेगा। विभिन्न सामाजिक आर्थिक इकाईयां उचित परिवेश में मिलकर बड़ी और विस्तारित होती जायेगी। फलस्वरूप एक दिन सारा दक्षिण एशिया एक आर्थिक इकाई बन सकता है परन्तु उत्पादन की आधारभूत इकाई प्रखण्डस्तरीय ही रहेगी। प्रासस इस नव स्वरूप को साकार कर आर्थिक लोकतंत्र के आधार पर अर्थव्यवस्था के भूमण्डलीयकरण को चरितार्थ करना चाहता है।

प्रखण्ड स्तरीय योजना (Block level Planning)

क्षेत्र के सर्वागीण विकास के लिए आर्थिक इकाई की योजना स्थानीय विशेषज्ञों द्वारा बनाई जानी चाहिए। यह तीनों क्षेत्रों के लिए होगी: कृषि आधारित उद्योग (कृषि उत्पादन पर आधारित), तथा कृषि उद्योग (कृषि के लिए आवश्यक उत्पाद बीज, खाद, हल, ट्रैक्टर आदि)। सामाजिक आर्थिक शिक्षा द्वारा ही उपरोक्त तीनों क्षेत्रों का क्रियान्वयन सम्भव है। ये उद्योग सहकारिता द्वारा नियमित एवं संचालित होने चाहिए। इस प्रकार की योजना नीचे से ऊपर की ओर चलती है न कि आजकल की तरह ऊपर से नीचे थोपी जाती हे। प्रखण्ड का निर्धारण लगभग एक लाख आबादी के लिए होना चाहिए।

संतुलितअर्थव्यवस्था (Balanced Economy)

सन्तुलित अर्थव्यवस्था के लिए कृषि, उद्योग तथा व्यापार में सुसामंजस्य रक्खा जाना चाहिए। सन्तुलित अर्थव्यवस्था में 30-40% जनसंख्या को कृषि, 20% जनसंख्या को कृषि उद्योगों, 10% व्यापार तथा 10% वेतन भोगी होनी चाहिए। विकसित अर्थव्यवस्था में कृषि उद्योग तथा व्यापार में लगे लोगों के प्रतिशत को क्रमशः कम करते जाना चाहिए।

विकेन्द्रित अर्थव्यवस्था के चार प्रमुख अंग होते हैं।

सामान्य अर्थव्यवस्था (General Economy) जनसाधारण अर्थव्यवस्था (People's Economy) वाणिज्य अर्थव्यवस्था (Commercial Economy) मनोवैज्ञानिक अर्थव्यवस्था (Psycho Economy)

आरक्षण (Reservation):

किसी वर्ग या व्यक्ति के लिए आरक्षण का सहारा दोषपूर्ण अर्थनीति का परिचावक है। विकेन्द्रित अर्थव्यवस्था द्वारा आर्थिक प्रजातंत्र की स्थापना के पश्चात किसी के लिए आरक्षण की आवश्यकता नहीं रहेगी। जब तक आर्थिक लोकतंत्र का सपना साकार न हो जाय, निम्नलिखित आधार पर आरक्षण दिया जाना चाहिए। प्रथम वरीयता- जो सामाजिक तथा आर्थिक दोनों दृष्टियों से पिछड़े हैं। द्वितीयवरीयता- जो आर्थिक दृष्टि से पिछड़े हैं परन्तु सामाजिक दृष्टि से नहीं। तृतीयवरीयता- जो सामाजिक दृष्टि से पिछड़े हैं किन्तु आर्थिक दृष्टि से नहीं।

शिक्षा नीति (Education Policy)

शिक्षा का आधार होना चाहिए "सा विद्या या विमुक्तये" जिससेआधिभौतिक, मानसिक तथा आध्यात्मिक तीनों स्तरों पर विमुक्ति का रास्ता प्रशस्त हो सके। भौतिक क्षेत्र में मुक्ति के लिए ऐसी शिक्षा की व्यवस्था होनी चाहिए जिससे लोग अपनी न्यूनतम आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु आवश्यक क्रय शक्ति अर्जित कर सकें। लोगों के मानसिक विकास की व्यवस्था करना भी शिक्षा का उद्देश्य है।साहित्य और कला, इतिहासऔर दर्शन, मनोविज्ञानऔर समाजशास्त्र, विज्ञान तथा तकनीकी का ज्ञान हासिल करना ही प्रर्याप्त नहीं है। इसके साथ ही मानवीय गुणों का भी विकास होना चाहिए। प्रत्येक स्तर पर प्रत्येक व्यक्ति के लिए शिक्षा की निःशुल्क व्यवस्था द्वारा लोगों को, भौतिक तथा मानसिक विकास के लिए समान अवसर उपलब्ध होंगे। आध्यात्मिकअनुशीलन के लिए मानसाध्यात्मिक विकास आवश्यकहै। शिक्षा की समुचित व्यवस्था करने का दायित्व शिक्षाविदों पर होना चाहिए न कि राजनीतिज्ञों पर। केवल आवश्यक वित्तीय व्यवस्था करने की जिम्मेदारी सरकार पर होनी चाहिए।

विज्ञान तथा तकनीकी (Science and Technology)

विज्ञान तथा तकनीकी शिक्षा को अधिक से अधिक प्रोत्साहित करना चाहिए ताकि वैज्ञानिक शोध और तकनीकी विकास द्वारा कृषि तथा उद्योगों को आधुनिकतम बनाया जा सके। इससे कृषि और औद्योगिक वस्तुओं का उत्पादन मूल्य कम होगा।

विदेश नीति (Foreign Policy):

आर्थिक उदारीकरण के बहाने अर्थशक्ति का केन्द्रीकरण मुट्ठीभर बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के हाथों में नहीं होना चाहिए। उदारीकरण का अर्थ है सहकारिता के आधार पर संपूर्ण अर्थशक्ति एवं सम्पदा को जनसमुदाय में बिखेर देना।अर्थ का भूमण्डलीयकरण इस युग की आवश्यकता है क्योंकि वर्तमान वैज्ञानिकऔर तकनीकी उपलब्धियों का यह स्वभाविक परिणाम है। किन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि पूंजीवादीअर्थव्यवस्था का भूमण्डलीयकरण हों। इसका वास्तविक उद्देश्य होना चाहिए जनसाधारणअर्थव्यवस्था (People's Economy) का भूमडलीयकरण। यह तभी संभव होगा जब उत्पादन प्रखण्ड स्तरीय हो और संचालन सहकारिता पर आधारित हो। आधुनिक तकनीकी तथा वैज्ञानिक उपलब्धिकयों का उपयोग कर, गुणवत्ता युक्त वस्तुओं का उत्पादन करने के लिए, प्रखण्डस्तरीय उत्पादन, संचालन तथा संस्थायें, इस प्रकार के भूमण्डलीयकरण कीआधारभूत इकाई होगी।

श्रमनीति (Labour Policy):

सभी बड़े उद्योगों का प्रबंधन श्रमिकों द्वारा परिचालित होना चाहिए। वेतन में कटौती किये बगैर काम के घंटों को कम करके पारियों की संख्या बढ़ाकर रोजगार के अवसर बढ़ाने का लगातार प्रयास होना चाहिए। हर व्यक्ति के लिए रोजगार की व्यवस्था करना सामाजिक उत्तरदायित्व है। बचे हुए समय का उपयोग कर, मानसिक विकास करने तथा कार्यदक्षता बढ़ाने के लिए श्रमिकों को प्रोत्साहित करना चाहिए। न्यूनतम तथा आधिकतम वेतनमान के अन्तर को क्रमशः कम करते रहना चाहिए ताकि न्यूनतम वेतन पाने वाले भी अधिक सुविधायें प्राप्त कर सकें।अधिकतम तथा न्यूनतम वेतन के बीच के अन्तर को क्रमशः कम करते रहना ही प्रगतिशील समाजवाद का मौलिक लक्षण है।

नेतृत्व (Leader Ship)

प्राउटिष्ट सर्वसमाज समिति का नेतृत्व खोखले नारों को राजनीति पर पनपा मंच नेतृत्व जैसा नहीं होगा। उन्हें नैतिकता तथा सेवा पराणयता की कसौटी पर खरा उतरना चाहिए तथा शरीर से स्वस्थ्य, मन से मजबूत तथाआध्यात्मिक स्तर पर उन्नत होना चाहिए। ऐसे सेवावती, कर्मठ, निष्ठावान एवं नैतिकवादी नेतृत्व के निर्माण की योजना, युग पुरुष श्री पी०आर० सरकार द्वारा दी गई है। यह नेतृत्व त्याग, सेवा तथा साधना द्वारा प्रासस की नीतिओं को क्रियान्वित करने के लिए कटिबद्ध होगा।

सम्पूर्णजीवजगत्एकवृहत्पौष (Joint) परिवारहै।इसबातकोक्षणभरकेलियेभीनहींभूलनाचाहिए।प्रक्तिनेविश्वकीकिसीआशिकसम्पतिकोभीकिसीव्यक्तिविशेषकेनामसेलिखपढ़नहींदियाहै।व्यक्तिगतमालकियतकीसृष्टिस्वार्थीअमरवादीमनुष्योंनेकियाहै, क्योंकिवेइसप्रकारकीव्यवस्थाकोदुर्बलताकेकारणशोषणकरस्वयंअपनीधमनियोंमीराकरनेकाअवसरपाजातेहैं।इसविश्व-ब्रह्माण्डकीसभीसम्पत्तिजबजीवमात्रकीहीपैतृकसम्पत्तिहैतोकिसीकेघरमेंपाचूर्णकाघोतहोऔरकोईअनाहारसेतिलतिलसूखकरभरेतोक्याइसव्यवस्थाकोधर्म-संगतकहाजासकताहै? यौथपरिवारकाहरेकव्यक्तिअपनीशुभायाप्रयोजनानुसारअन्न-वस्त्रशिक्षाचिकित्सायाआरामकोव्यवस्था, समग्रपरिवारकीआर्थिकसंगतिकेअनुसारपाताहै।किन्तुयदिपरिवारकाकोईसदस्यअपनेप्रयोजनकेअतिरिक्तअन्न, वस्त्र, पुस्तकयाऔषधिकोअपनेजिम्मेरखलेतोउसपरिवारकेअन्यसदस्योंकेलिएक्यायहकष्टकारीनहींहै? इसव्यवस्थामेंउसकायहकार्यनिश्चयहीधर्माविरोधीहै, समाजविरोधी है।

- श्रीप्रभातरञ्जन सरकार